मरुभूमि में एक बीज गिरा
मरुभूमि में एक बीज गिरा,
लिया धरती का उसने आँचल थाम,
एक माँ सा उसको प्यार मिला,
अल्प वर्षा से पनप उठा इक शाम,
माटी चीर वो ऊपर उठा,
जितना ऊपर उतना नीचे बढ़ा,
दो सुकोमल पत्ते उसके,
तेज़ हवाओं में थरथराते थे,
पर जड़ों का दम-ख़म देख,
कभी इरादे न डगमगाते थे,
ऋतुयें बदली, सावन बीते,
कई बसंत आये और आकर पार हुए,
उस अंकुर को मिटाने सृष्टि के,
सारे षड़यंत्र बेकार हुए,
धरा और पानी उसके सेनानी,
जिनके सहारे आ गयी जवानी,
वृक्ष बना वो वीरां रण का,
वृहद्-विशाल अब उसका कद था,
भूमि और तब हुई दयाला,
नयी कोपलों ने अपना सर निकला,
वट वृक्ष के साए में बढ़ती,
नयी ऊंचाइयों को छूने वो चढ़ती,
उन पुष्प-लताओं का वृक्ष सहारा,
उन्होंने वृक्ष का रूप संवारा,
वृक्ष पे एक गौरैया भी आई,
चेह्चहाई और वृक्ष की शान बढ़ाई,
गाती थी वो निर्मल स्वर में,
उल्लास झूलता अब उस आँगन में,
जिजीविषा की हठ ने जिसे पाला,
बदली जिसने मरुस्थल की विचार धारा,
ताकत-सौंदर्य का अदभुत नज़ारा,
बंजर भूमि का मैं वट-वृक्ष तिहरा.
~तुषार
About the author: Tushar Gupta is passionate about Hindi poetry. He is currently working towards his Ph.D. at University of Kentucky. He graduated with B.Tech from Indian School of Mines in 2012 and M.S. from University of Alaska Fairbanks in 2016 in Mining Engineering.
Anil Kumar, PhD, 1965, PTech
What a wonderful poem, Tushar. Hope you
will continue to entertain us with your compositions
in the future. You should consider joining and publishing your poems in the International Hindi Samiti of USA for larger dissemination and networking with other Hindu poets in the country.