Akaalbodhan – by S. P. Chand (70’Min)

December 30, 2021 0 comments ISMAANA Admin Categories Patrika Q4 2021

अकालबोधन

था उदीयमान सूर्य से प्रकाशित तपोवन का कण-कण
शरद के आगमन से उल्लसित -प्रफ़ुल्लित हर स्पन्दन
इस मधुर पल में,खिन्न फिर भी रघुवर राम का अंतर्मन
वियोग अपनी सीता का असहनीय, और व्यथा अव्यक्त
लक्ष्मण भी थे दुःखी ,देख प्रिय भ्राता का मुख विषन्न

कुछ दूर गहन चिंतन में थे ड़ूबे हनुमान
कैसे प्रभु राम की लौटायें मधुर मुस्कान
कैसे माता जानकी का करें राम उद्धार
रावण की लंका थी अभेद्य, अजेय,
राक्षसों की सेना से घिरी छिपी अशोक-वाटिका
फ़िर भी जला सोने की लंका,तोड़ा उनका अभिमान
उपाय कैसा करें राम-सीता का मिलन हो आसान

हठी है रावण, होगा नहीं टस से मस
वार्ता से नहीं निकलेगा कोई भी हल
शक्तिमान है वो, देवों के आशीष समृद्ध
हर क्षेत्र में अग्रणी ,वायु हो या जल-थल

कहा था राम ने :
कैसे होगा बताओ युद्ध सम्भव , हनुमान !
कहाँ साधनहीन निष्कासित मैं दासरथी
और वो, शिव आशीष से समृद्ध शक्तिमान
असुर श्रेष्ठ लंकाधिपति रावण महारथी

बोले लक्ष्मण :
हे प्रबुद्ध ! छल का उत्तर है युद्ध और केवल युद्ध
वह यद्यपि महापराक्रमी, पर है तो परम दुष्ट
विनाश होता है जब जब अन्याय का इस जग में
मानव धरती पर, स्वर्ग में देवता भी होते हैं तुष्ट
है इतिहास साक्षी, अधर्म ने सदा मानी हार
खड्ग उठा कर , जब भी धर्म ने किया प्रहार
हे तात ! करो आप लंकेश्वर का त्वरित संहार
धर्मयुद्ध है ये, छोड़ो दुविधा, त्यागो अन्य विचार

तभी बोल उठे हनुमान:
हे प्रभु!
दानवों के अत्याचार से जब प्रकम्पित थी धरती
देवताओं के आग्रह पर हुईँ अवतरित माँ दुर्गा
देवी ने किया समूल संहार सभी क्रूर राक्षसों का
ली सुख की साँस धरती ,पाताल और स्वर्ग ने
कर पूजन दुर्गतिनाशिनी माँ दुर्गा की, माँगे वरदान
सफल होंगे रण में, मिटेगा रावण का नामों-निशान

बोले राम :
हे हनुमान ! श्रेष्ठ है आपका चिंतन और विचार
कृतज्ञ हूँ , अभिभूत करता मुझे आपका यह प्यार
अवतरित होती हैं देवी कैलाश पर्वत के शिखर से
चैत्र में हर वर्ष ,होता है हर्ष से पवित्र यह भूखण्ड
अर्चना होती है तभी, जब हो अनुकूल काल-खंड
अपनी मूढ़ता से स्वार्थ-वश भूल कर नियम धर्म
जान कर ये,कैसे कर सकता हूँ मैं धृष्टता प्रचण्ड
प्रकृति के नियम के विरोध से है सशंकित मेरा मन
क्या करेगा नहीं देवी को कुपित मेरा अकाल बोधन ?

बोले हनुमान :
जब दुःख में हो कोई सन्तान , रुक जाता है स्पंदन
सह नहीं सकती कभी कोई माता संतान का क्रन्दन
रोक नहीं सकता प्रलय भी , यदि पुकारे पुत्र का मन
द्विधा संशय से होकर मुक्त, दृढ़-चित्त से करें पूजन
माता को याद करने का नहीं होता निश्चित पल-क्षण
समृद्ध हो शक्तिरुपिनी की कृपा से करें शत्रु-संहार
इस महा समर में रक्षा करेगा आपकी,माँ का ही प्यार

दिया उत्तर रघुवर ने :
जानकी के विरह का दुःख भी कर लेता हूँ सहन
पास मेरे रहते हो लक्ष्मण और तुम मारुति-नंदन
शुभ- लग्न में करूँगा पूजन देवी दुर्गा का श्रद्धा से
जाओ आश्विन शुक्ल पक्ष नवमी को होगा हवन
इससे पहले आदिशक्ति चण्डिका का करूँ पाठ
ले आना नील कमल ज़रूर तुम एक सौ आठ

फ़िर आया शरद ऋतु का आश्विन शुक्ल-पक्ष
पूरी वानर सेना के साथ लक्ष्मण और हनुमान
आयोजन में लगे पूरी श्रद्धा और लगन के संग
भुजाएँ फड़क रही,हर दिल में था जोश और उमंग

उधर लंका में था व्याप्त ,भय लंका दहन के पश्चात
अनिश्चय,संशय, शोक, जाने कब क्या हो जाए हटात
जिस दशानन के हुंकार से कांपता था स्वर्ग थर-थर
देवी-पूजन के इस आयोजन के संवाद से बना वो पत्थर
महाज्ञानी राजनीतिज्ञ था , जानता था पूजा का असर
कृपा शक्ति की देवी की , मिली राम को तो होगी जय

मन में सोचा उसने , वचन रघुकुल का अगर जाए टूट
कुंद हो जाएगा सारा पराक्रम, व्यर्थ होगा आयोजन
कर धारण छद्मवेश, छिप कर चुराया नील कमल एक
अधूरे सामग्री से होती नहीं महापूजा कहता है विवेक

लक्ष्मण जब राम संग बैठे निज पूजा के आसन पर
एक फूल कम देख तनी भ्रुकुटी स्मित आनन पर
“ये क्या हनुमान आयोजन का लिया था आपने भार
लुप्त नील कमल एक , आघात भ्राता के प्रण पर”

अंतर्यामी ने परख लिया ,था किसका यह षड्यन्त्र
विचलित महावीर कुछ कहते, बोले मधुर स्वर में राम
“सभी कहते हैं आँखे हैं मेरी गहरे नील कमल सी
करूँगा अर्पण इसे वेदी पर ,पूजा में होगा नहीं विराम “
पड़ा था निकट तरकस, त्वरित निकाला तीक्ष्ण एक तीर
बिना द्विधा नोक उसकी ले आए निज आँखो के समीप
पर इससे पहले चुभता तीर कमल-नयन में रघुवर के
हज़ार सूरज की आभा लिए प्रकटी स्वयं महामाया
स्तंभित, चकित,सभी अपलक निहारते स्वर्णिम काया

बोली स्वयं चण्डिका :
“रुको वत्स ! सच है कि मुझे प्रिय हैं बहुत ये नील कमल
व्यर्थ नहीं हनुमान ,किया है किसी ने तुमसे भीषण छल
अभिभूत हुई मैं तुम्हारी लगन, श्रद्धा और वचनबद्धता से
सम्पूर्ण हुई पूजा , तुम अविचल, है भक्ति तुम्हारी निश्छल
अभिमानी नहीं परम ज्ञानी हो तुम्हीं से आलोकित तपोवन
आयी कौन सी आपदा ? हो रहा क्यों यह अकालबोधन?”

अश्रुपुरित चक्षु से धोया चरण माँ दुर्गा का रघुपती ने
कह डालीं कथा, वेदना से विदीर्ण हृदय को खोल
सुनकर देवी के भी नयन हुए सजल, बोली माँ हँसकर
माँ की शरण में आया है, बोल पुत्र अपनी इच्छा बोल
विजयी होगा अहर्निश तू समर में, हर प्रहर में, हर क्षण
समग्र संसार के लिए लाएगा शुभ संवाद ये तेरा प्रण
सच्ची पूजा होगी मेरी आज के बाद –